पछतावे के भाव को कैसे दूर करें?:श्रीकृष्ण की सीख: अपनी गलतियों से सीख लेकर आगे बढ़ें, शांति चाहते हैं तो वर्तमान पर ध्यान दें
पश्चाताप एक ऐसा भाव है जो हमारे मन को कई सालों तक जकड़े रख सकता है। कोई गलती जो हमसे अनजाने में हो गई, कोई निर्णय जो गलत साबित हुआ, ऐसी कई बातें होती हैं जो हमें अंदर से तोड़ सकती हैं। ये भाव हमें नष्ट करता है और हमें वर्तमान से अलग करके सिर्फ काश... की दुनिया में समेट देता है। श्रीमद् भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने ऐसे सूत्र बताए हैं, जिन्हें अपनाने से हम पछतावे से मुक्त हो सकते हैं और जीवन में शांति पा सकते हैं... कर्म का स्वभाव समझें, निष्काम कर्म करें श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। (भगवद गीता 2.47) अर्थ: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। ये श्लोक हमें सिखाता है कि हमारे हाथ में सिर्फ प्रयास करना है, परिणाम नहीं। जब हम अच्छा करने की मंशा रखते हैं, पर परिणाम वैसा नहीं आता, तब पछतावे का भाव आता है। इस भाव से बचना चाहते हैं तो हमें निष्काम कर्म करना चाहिए, अपने प्रयासों पर ध्यान देना चाहिए, न कि परिणामों पर। अगर किसी काम के लिए हमारी नीयत अच्छी है और उसमें असफलता मिलती है तो खुद को क्षमा करके आगे बढ़ना चाहिए। खुद को दोषी ठहराने से पछतावे का भाव बना रहेगा। जो बात हमारे नियंत्रण में नहीं है, उसके लिए दुखी नहीं होना चाहिए। किसी बात का शोक करने से बचें श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - पण्डिता न अनुशोचन्ति। (गीता 2.11) अर्थ: ज्ञानी व्यक्ति न जीवित के लिए शोक करता है और न मृत के लिए। हमें किसी भी स्थिति में शोक नहीं करना चाहिए। गलती सभी मनुष्य करते हैं, लेकिन जो बुद्धिमान हैं, वे अपनी गलतियों से सीखते हैं, सुधार करते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। जब हम इस बात को अपने जीवन में उतार लेंगे तो असफल होने के बाद भी शोक नहीं होगा, हम पछतावे के भाव से बचे रहेंगे। गीता कहती है कि गलतियां हमारे कर्म का हिस्सा है, इसे सुधारकर हम बेहतर बन सकते हैं। निराशा से बचें और आगे बढ़ते रहें श्रीकृष्ण कहते हैं- क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ, नैतत्त्वय्युपपद्यते। उठिष्ठ! (गीता 2.3) अर्थ: यह कायरता तुझ पर शोभा नहीं देती, उठ और युद्ध कर। ये युद्ध प्रतीक है अपने भीतर के पछतावे से लड़ने का। श्रीकृष्ण हमें निराशा में डूबने नहीं देते, वे हमें आगे बढ़ने को प्रेरित करते हैं। पछतावे को खुद को सजा देने का माध्यम न बनाएं, बल्कि चरित्र निर्माण का अवसर बनाएं। जो बीत गया, उसे पकड़कर न बैठें, हर पल एक नई शुरुआत है। समर्पण और क्षमा की शक्ति श्रीकृष्ण कहते हैं- सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। (गीता 18.66) अर्थ: सब कुछ छोड़ कर मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। शोक मत करो। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि तुमने गलती की है, लेकिन हृदय से पछताते हो और सुधार का संकल्प लेते हो तो ईश्वर भी तुम्हें क्षमा कर देते हैं। खुद को उसी तरह क्षमा करें, जैसे भगवान करते हैं। पश्चाताप को नया मोड़ बनाएं, न कि आजीवन बोझ। वर्तमान में जीना ही शांति पाने का सूत्र है श्रीकृष्ण बार-बार अर्जुन को अभी में जीने को कहते हैं। भूतकाल की पीड़ा या भविष्य की चिंता दोनों ही हमें कमजोर बनाती हैं। शांति चाहते हैं तो वर्तमान पर ध्यान दें। वर्तमान ही सबसे शक्तिशाली क्षण है। अभी के कर्म को बेहतर बनाकर हम अतीत की गलती को सुधार सकते हैं। गलती से इंसान गिरता है, लेकिन उसे स्वीकार करके उठने वाला ही सच्चा साधक बनता है।

What's Your Reaction?






